मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

मध्यप्रदेशःबाल मृत्यु दर में टॉप पर। डाक्टरों के पौने दो हजार पद रिक्त

मध्य प्रदेश मानव विकास के अनेक मानदंडों पर देश के अन्य राज्यों से ही नहीं, विश्व के अनेक देशों से भी पिछड़ा है। बाल मृत्यु दर तो यहां विश्व में सबसे ज्यादा है। यह बात एशियन लीगल रिसोर्सेस सेंटर की भारत संबंधी रिपोर्ट में सामने आई है जो संयुक्त राष्ट्र मानव विकास परिषद को सौंपी गई है जिससे कि यह संस्था संबद्ध है। ये आंकड़े चौंकाने वाले इसलिए नहीं हैं कि यह बात कई और आंकड़ों के द्वारा भी सामने आ चुकी है। परेशान करने वाली बात यह है कि इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित आदिवासी बच्चे हैं,उन्हीं आदिवासियों के बच्चे जिन्हें भारतीय जनता पार्टी तथा विश्व हिंदू संगठन हिंदुत्व का झंडा थमा रहे हैं और जिन्हें वोट बैंक बनाकर बरसों तक कांग्रेस ने केंद्र तथा राज्य की राजनीति की है और अब भी कर रही है लेकिन मध्य प्रदेश की मौजूदा सरकार इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि भाजपा सरकार के पिछले पांच सालों में बच्चों का कुपोषण बढ़ा है लेकिन इस बीच एक भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित नहीं किया गया है। इसके अलावा १६५९ यानी एक-तिहाई डॉक्टरों के पद रिक्त हैं। स्थिति यह है कि आदिवासी बच्चों के जीने की संभावना सबसे कम है क्योंकि इनमें से ७१.४ प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं तथा ८२.५ प्रतिशत रक्ताल्पता के शिकार हैं। मौजूदा भाजपा सरकार पिछले लगभग छह वर्षों में विकास का नारा तो दिया मगर विकास का अर्थ शहरों में बिजली-पानी-सड़क की सुविधाएं देना ही उसने समझा है,हालांकि उस मामले में भी राज्य का रिकॉर्ड बेहतरीन नहीं है। इस स्थिति के लिए किसी हद तक केंद्र सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। केंद्र सरकार कहती है कि राज्य में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले महज ४२ लाख परिवार हैं। इसके विपरीत राज्य सरकार का कहना है कि गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की तादाद ६५ लाख है यानी करीब २३ लाख परिवार सस्ते गेहूं-चावल की सुविधाओं से आज वंचित हैं। इसका सीधा नुकसान आदिवासियों को होता है जो कि गरीबों में भी गरीब हैं। इस स्थिति के लिए केंद्र सरकार की समग्र बाल विकास सेवा (आई.सी.डी.एस.)भी जिम्मेदार है जिसके लिए ७५ हजार करोड़ रुपयों की जरूरत है मगर महज ६७०५ करोड़ रुपए २००९-१० के बजट में रखे गए थे। इसकी वजह से आज भी देश के ४६ प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम है,८० प्रतिशत बच्चे खून की कमी का शिकार हैं। दरअसल,राजनीतिक नारेबाजी को छोड़ दें तो देश की किसी भी राजनीतिक पार्टी की गरीबों-दलितों-आदिवासियों की दशा में कोई वास्तविक दिलचस्पी नहीं है। अगर होती तो आज यह दशा नहीं होती।
(नई दुनिया,दिल्ली,23.2.10 का संपादकीय)

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