बुधवार, 23 दिसंबर 2009

डॉक्टरों की मनमानी के खिलाफ आवाज़ ऐसे उठाएं

कई बार डॉक्टरों की लापरवाही की वजह से इलाज ही बड़ी बीमारी का सबब भी बन जाता है। ऐसे में बिगड़े मर्ज के साथ मरीज ठोकरें खाने को मजबूर हो जाता है। आम दिक्कतें 1. अस्पताल में भर्ती मरीज के रिश्तेदार अगर उसकी केस फाइल या उसकी फोटोकॉपी अपनी संतुष्टि के लिए किसी और डॉक्टर को दिखाना चाहें, तो हॉस्पिटल वाले करते हैं ऐतराज। 2. किसी बाहरी डॉक्टर को हॉस्पिटल में बुलाकर सेकंड ओपिनियन लेना चाहें तो डॉक्टर और हॉस्पिटलों को होता है ऐतराज। 3. मरीज से मिलने आए किसी डॉक्टर रिश्तेदार को भी नहीं दिखा सकते हैं मरीज की फाइल। 4. अगर डॉक्टर को केस अपनी पकड़ से बाहर लगता है, तो वह तुरंत किसी और हॉस्पिटल में ले जाने को बोल देता हैं, लेकिन यदि मरीज के अटेंडेंट इलाज से संतुष्ट न होने की हालत में उसे किसी और हॉस्पिटल में ले जाना चाहें, उनसे यह लिखवाया जाता है कि वे अपने रिस्क पर और डॉक्टर के मना करने के बावजूद मरीज को ले जा रहे हैं। 5. मरीज या उसके रिश्तेदार के पूछने पर इलाज के बारे में नहीं दी जाती है पूरी जानकारी। क्या कहती है हॉस्पिटल की रूल बुक गंगाराम हॉस्पिटल के अध्यक्ष डॉ. बी. के. राव 1. हॉस्पिटल में भर्ती किसी भी भर्ती मरीज के इलाज से संबंधित फाइल की फोटोकॉपी को उनके परिजन ले जा सकते हैं। इसके लिए वह ट्रीटिंग डॉक्टर, रेकॉर्ड सेक्शन या हॉस्पिटल प्रशासन से सीधे बात कर सकते हैं। भर्ती के टाइम ही नहीं, मरीज के डिस्चार्ज होने के बाद भी अगर कोई उनकी फाइल की कॉपी लेना चाहता है तो रेकॉर्ड सेक्शन से बात करके तुरंत इशू करा सकता है। 2. अगर मरीज या उसके रिश्तेदार लाइन ऑफ ट्रीटमेंट के बारे में डिटेल्स जानना चाहते हैं तो डॉक्टर बिल्कुल मना नहीं कर सकते। यह मरीज या उनके रिश्तेदारों का अधिकार है कि वे सबकुछ जानें। 3. अगर भर्ती मरीज का कोई डॉक्टर रिश्तेदार या जानकार उससे मिलने के लिए आता है और उसकी फाइल देखना या उस पर डॉक्टर से डिस्कस करना चाहता है तो हम कभी इनकार नहीं करते हैं। 4. अगर भर्ती मरीज के रिश्तेदार अपनी संतुष्टि और सेकंड ओपिनियन के लिए बाहर से किसी डॉक्टर को बुलाना चाहते हैं तो उन्हें सिर्फ अपने ट्रीटिंग डॉक्टर को कॉन्फिडेंस में लेना होता है। हमारे यहां तो कई बार लोग दूसरी पैथी के एक्सपर्ट या प्रीस्ट आदि को भी ले आना चाहते हैं और इस स्थिति में भी हमारे डॉक्टर ऐतराज नहीं करते हैं। मगर जहां तक इलाज की बात है तो जब तक मरीज हमारे यहां भतीर् रहता है तब तक उसकी सहमति के हिसाब से ही इलाज होता है। 5. अगर कोई डॉक्टर की सहमति के बिना मरीज को डिस्चार्ज कराकर ले जाना चाहता है तो ऐसे केस में अगेंस्ट मेडिकल एडवाइस के पेपर पर साइन कराना जरूरी होता है, क्योंकि ऐसा नहीं करने से मरीज के साथ अगर अनहोनी हो गई तो उसकी जिम्मेदारी डॉक्टर और हॉस्पिटल पर आ सकती है। एम्स के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉ. डी. के. शर्मा 1. किसी भी भर्ती मरीज के इलाज से संबंधित फाइल की फोटोकॉपी को उसके परिजन ट्रीटिंग डॉक्टर की सहमति से ले जा सकते हैं। 2. अगर मरीज या उसके रिश्तेदार उसके लाइन ऑफ ट्रीटमेंट के बारे में डीटेल में जानना चाहते हैं तो डॉक्टर मना नहीं करते हैं। यह अलग बात है कि हमारे यहां मरीजों का बहुत ज्यादा दबाव होने के चलते ओपीडी में डॉक्टर ज्यादा टाइम नहीं दे पाते हैं, बावजूद इसके मरीज और उसके रिश्तेदारों को संतुष्ट करने की पूरी कोशिश की जाती है। 3. अगर भर्ती मरीज का कोई डॉक्टर रिश्तेदार या जानकार उससे मिलने के लिए आता है और उसकी फाइल देखना चाहता है तो ट्रीट्रिंग डॉक्टर से बात कर सकता है। 4. भर्ती मरीज के रिश्तेदार अपनी संतुष्टि के लिए सेकंड ओपिनियन लेना चाहते हैं तो उन्हें इंस्टिट्यूट की ही दूसरी यूनिट के डॉक्टरों से सलाह लेने का सुझाव दिया जाता है, लेकिन अगर कोई बाहर से डॉक्टर को बुलाना चाहता है तो इसके लिए विशेष पमिर्शन और ट्रीटिंग डॉक्टर की रजामंदी की जरूरत होती है। जैसा कि पी. वी. नरसिंह राव और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इलाज के मामले में किया गया था। मरीज को है पूरा अधिकार - अगर पेशंट सेकंड ओपिनियन के लिए दूसरे डॉक्टर को बुलाते हैं, तो इलाज कर रहा डॉक्टर या हॉस्पिटल अथॉरिटी कोई ऐतराज नहीं कर सकते- डॉ. गिरीश त्यागी, रजिस्ट्रार, दिल्ली मेडिकल काउंसिल - इंटरनैशनल कोड ऑफ एथिक्स के मुताबिक हर मरीज या उनके परिजनों को यह जानने का हक है कि मरीज को क्या हुआ है, उसकी जांच में क्या सामने आया है और इलाज के लिए उन्हें कौन-सी दवाइयां दी जा रही हंै। अगर उन्हें कोई कॉम्प्लिकेशन आती है तो उसकी वजह क्या है, यह भी जानने का हक है-डॉ. अनिल बंसल, मेंबर, दिल्ली मेडिकल काउंसिल दिल्ली में प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टरों को रेग्युलेट करने वाली संस्था दिल्ली मेडिकल काउंसिल समेत तमाम एजेंसियां मरीजों को इलाज के दौरान लापरवाही बरतने पर अपनी शिकायत दर्ज करवाने का फोरम मुहैया कराती हैं। दिल्ली मेडिकल काउंसिल के रजिस्ट्रार डॉ. गिरीश त्यागी के मुताबिक: -इलाज के बारे में अपनी संतुष्टि के लिए उसके रिश्तेदार भर्ती मरीज की फाइल दूसरे अस्पताल के डॉक्टर को दिखा सकते हैं। -पेशंट की संतुष्टि के लिए अगर बाहर से किसी डॉक्टर को कोई बुलाता है तो इस पर हॉस्पिटल या ट्रीटिंग डॉक्टर को ऐतराज नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस बारे में कहीं कोई रोक नहीं है। कई बार तो डॉक्टर खुद यह बोलते हैं कि अगर मरीज की हालत ज्यादा खराब है और रिश्तेदार अपनी संतुष्टि करना चाहते हैं तो बाहर से किसी डॉक्टर को बुलाकर सेकंड ओपिनियन ले लें। - जहां तक मरीज के किसी डॉक्टर रिश्तेदार के फाइल देखने की बात है तो इसमें छुपकर देखने वाली कोई बात ही नहीं है, वैसे भी सिर्फ फाइल देखकर केस को समझना मुश्किल होता है। ऐसे में ट्रीटमेंट कर रहे डॉक्टर से सीधे केस डिस्कस करना चाहिए और उस ट्रीटिंग डॉक्टर को भी इस डिस्कशन को मरीज या उसके रिश्तेदारों की चिंता के तौर पर देखना चाहिए, अपने काम में दखल के तौर पर नहीं। -अगर ट्रीटमेंट कर रहे डॉक्टर केस डिस्कस करने या फाइल शेयर करने में आनाकानी करते हैं तो इसे उसकी प्रफेशनल इनसिक्युरिटी ही कहा जा सकता है। - इलाज का सबका अपना तरीका होता है और हर डॉक्टर अपना बेस्ट देना चाहता है। मुश्किल केस में हॉस्पिटल के दूसरे डॉक्टरों से भी वह डिस्कस करता ही है। जहां तक परिजनों की मजीर् होने पर शिफ्ट कराने की बात है, अगर डॉक्टरों को लगता है कि मरीज को शिफ्ट नहीं किया जाना चाहिए, फिर भी परिजन शिफ्ट के लिए दबाव डालते हैं तो डॉक्टर उनसे लामा फॉर्म (लेफ्ट अगेंस्ट मेडिकल एडवाइस) पर साइन करवाते हैं। दिल्ली मेडिकल काउंसिल के सदस्य डॉ. अनिल बंसल के मुताबिक: -इंटरनैशनल कोड ऑफ एथिक्स के मुताबिक हर मरीज या उसके रिश्तेदारों को यह जानने का हक है कि मरीज को क्या हुआ है, उसकी जांच में क्या सामने आया है और इलाज के लिए उन्हें क्या- क्या दिया जा रहा है। अगर उन्हें कोई कॉम्प्लिकेशन आती है तो उसकी वजह क्या है, यह भी जानने का हक है। मगर भारत में सरकारी क्षेत्र में जहां इन्फ्रास्ट्रक्चर और डॉक्टरों की कमी इसके आड़े आती है तो प्राइवेट अस्पतालों में भी ऐसा कल्चर नहीं है। यही वजह है कि मरीज के कुछ पूछने पर ज्यादातर टाइम घुड़की ही मिलती है। आए दिन सरकारी अस्पतालों में होने वाली मारपीट इसी का एक नतीजा है। कहां करे मरीज शिकायत स्टेप 1 अगर कोई व्यक्ति अपने या अपने रिश्तेदार के इलाज से संतुष्ट नहीं है या इलाज से कोई नई बीमारी या मृत्यु हो गई है तो वह दिल्ली मेडिकल काउंसिल में अपनी शिकायत दर्ज कर सकता है। काउंसिल में शिकायत दर्ज कराने के दो तरीके हैं। इलाज से जुड़े सभी कागजों की फोटोकॉपी और शिकायत पत्र को पोस्ट कर दिया जाए या फिर खुद वहां जाकर कंप्लेंट की जाए और संबंधित कागज जमा कराए जाएं। काउंसिल का पता दिल्ली मेडिकल काउंसिल, कमरा नंबर : 368, थर्ड फ्लोर, पैथोलजी ब्लॉक, मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज, बहादुरशाह जफर मार्ग, नई दिल्ली-110002 फोन नंबर : 011-23235177, 23237962 वर्किंग डे : सोमवार से शुक्रवार वर्किंग ऑवर्स : सुबह 9:30 से दोपहर बाद 4:30 तक स्टेप 2 - अगर मरीज या उसके रिश्तेदारों को लगता है कि काउंसिल में जाने के बजाय पुलिस के पास जाने से फौरन कार्रवाई होती है, तो यह विकल्प भी अपनाया जा सकता है। जिस एरिया में हॉस्पिटल है, वहां के पुलिस स्टेशन में जाकर कंप्लेंट की जा सकती है। हालांकि पुलिस को भी जांच के दौरान अगर मेडिकल लापरवाही का मामला लगता है, तो केस को दिल्ली मेडिकल काउंसिल के पास ही रेफर किया जाता है। स्टेप 3 - इलाज के दौरान हुए नुकसान की भरपाई के लिए मरीज या उसके रिश्तेदार कंस्यूमर फोरम भी जा सकते हैं। शिकायत का नेचर देखने के बाद कंस्यूमर फोरम या तो दिल्ली मेडिकल काउंसिल से संपर्क करती है, या फिर किसी भी सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों की एक टीम बनाकर उसे जांच की जिम्मेदारी सौंपती है। कंस्यूमर फोरम से जुड़ी जानकारी पता : दिल्ली स्टेट कंस्यूमर कमिशन, ए ब्लॉक, फर्स्ट फ्लोर, विकास भवन, आईपी इस्टेट, नई दिल्ली-110002 फोन नंबर : 011-23370799, 23370258 फैक्स नंबर : 23370258 कैसे होती है जांच - दिल्ली मेडिकल काउंसिल (डीएमसी) शिकायत करने वाले व्यक्ति द्वारा उपलब्ध कराए गए सभी डॉक्युमेंट्स की जांच कराती है। - जरूरत पड़ने पर शिकायतकर्ता और जिस डॉक्टर के खिलाफ शिकायत की गई है, उन दोनों को बुलाकर मामले के सभी पहलुओं को समझा जाता है। - केस को काउंसिल की इगेक्युटिव कमिटी के सामने रखा जाता है। कमिटी के सभी मेंबर्स केस डिस्कस कर इस पर अपनी राय देते हैं। - अगर केस बहुत सीरियस है या एक बार में फैसला नहीं हो पाता, तो कमिटी की दूसरी मीटिंग होती है और फिर ऑर्डर पास किया जाता है। - केस कितने समय में सुनवाई के लेवल पर आ जाएगा, इसके बारे में कोई निश्चित समयसीमा नहीं है। पेंडिंग केसों के हिसाब से नंबर लगता है। - डीएमसी अपने लेवल पर शिकायत सही पाए जाने पर डॉक्टर को वॉनिर्ंग दे सकती है। डीएमसी डॉक्टर का लाइसेंस भी कैंसल कर सकती है। - शिकायतकर्ता अगर अपने नुकसान की भरपाई चाहता है, तो डीएमसी की रिपोर्ट के साथ वह कंस्यूमर फोरम जा सकता है। - डीएमसी ऐसे मामलों के निपटारे के लिए महीने में कम से कम दो बार एग्जिक्यूटिव कमिटी की मीटिंग बुलाती है। जरूरत पड़ने पर महीने में चार या पांच बार भी मीटिंग हो सकती है। - अगर शिकायतकर्ता डीएमसी के फैसले से संतुष्ट नहीं है तो मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया में इस फैसले के खिलाफ अपील की जा सकती है। मेडिकल काउंसिल का पता : मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया, पॉकेट-14, सेक्टर-8, द्वारका फेज-1, नई दिल्ली- 110077 फोन नंबर : 011-25367033, 25367035, 25367036, 25367037 फैक्स नंबर : 25367024, 25367028 डॉक्टर-मरीज से संबंधित दो अहम फैसले आपराधिक मामले के अलावा मुआवजा भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा इंडियन मेडिकल असोसिएशन बनाम वी. पी. शांता के मामले में 1995 में दिए गए फैसले के मुताबिक डॉक्टरों पर दो कारणों से मुकदमा चलाया जा सकता है। एक तो लापरवाही बरतने के लिए उन पर आपराधिक मामला बनता है और दूसरा कंस्यूमर फोरम में उनसे मुआवजे की मांग भी की जा सकती है, जबकि इससे पहले डॉक्टरों को सिर्फ असावधानी बरतने के लिए दोषी पाए जाने पर सजा सुनाई जा सकती थी। लापरवाही के मामले में एक्सपर्ट की राय जरूरी 5 अगस्त 2005 को डॉ. जैकब मैथ्यू मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के मुताबिक किसी आम आदमी को डॉक्टर की लापरवाही के खिलाफ सीधे केस करने का अधिकार नहीं है। मामला तभी दर्ज किया जा सकता है जब किसी सक्षम डॉक्टर (सरकारी क्षेत्र से हो तो बेहतर है) ने इस मामले में अपनी राय दी हो। इस मामले में बचाव पक्ष के वकील की एक दलील यह भी थी कि अगर डॉक्टर पर यह तलवार लटकती रही कि उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सकती है तो वह इलाज करने से घबराने लगेगा।   (नभाटा,दिल्ली,05 दिसम्बर,2009 के अंक में नीतू सिंह की रिपोर्ट)

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