सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

आहार-ऊर्जा

ऊर्जा शब्द का प्रयोग दैनिक जीवन में निरंतर होता है। ऊर्जा ऐसा अद्भुत तत्व है जिसके अभाव में कर्म या क्रिया संभव नहीं है। समस्त सृष्टि जड़-चेतन तत्त्‍‌वों के संयोग का परिणाम है। यह चेतनत्व या चेतनता ही ऊर्जा है, जिसे आंतरिक या अंत:करण की शक्ति के रूप में माना जाता है। मानव शरीर तथा मनोमस्तिष्क में प्रतिक्षण ऊर्जा का संचय तथा क्षरण होता रहता है। इसके पुन: संचय के लिए अन्नादि की आवश्यकता होती है। अन्न तथा विश्राम के द्वारा प्राप्त ऊर्जा मनुष्य कोदो रूपों में प्रभावित करती है-सकारात्मक तथा नकारात्मक। भारतीय संस्कृति में अन्न व आहार की बहुत महिमा है। इनकी शुद्धि पर विशेष बल देते हुए शास्त्रों में लिखा है कि अन्न से ही मन बनता है। जैसा अन्न खाया जाता है, वैसा ही मन हो जाता है, तद्नुरूप ही बुद्धि, भावना, विचार एवं कल्पनाशक्ति निर्मित हो जाती है। आहारगत सकारात्मक ऊर्जा की प्राप्ति के लिए तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं- अन्न की प्राप्ति शुद्धाचरण तथा न्यायोचित ढंग से की गई हो, भोजन संपादन व ग्रहण का स्थान स्वच्छ व पवित्र हो तथा आहार निर्माता की मन:स्थिति सकारात्मक तथा सद्भावपूर्ण हो। इस प्रकार का आहार बल व ऊर्जा, दोनों का प्रदाता होता है तथा शरीर में हल्कापन व तृप्ति का अनुभव होता है। इसके विपरीत अपूजित अर्थात निंदाभाव से बिना प्रशंसा किए, खिन्न मन से बनाया गया तथा ग्रहण किया गया आहार शरीर को नकारात्मक ऊर्जा से भरता है तथा शरीर में भारीपन, असंतुलन साथ ही जठराग्नि के विकार को उत्पन्न करता है। इससे बल व ऊर्जा, दोनों का क्षय होता है। आहार मात्र स्वाद प्राप्ति या जिह्वा का विलास मात्र नहीं, अपितु क्षुधा निवारण तथा शरीर रक्षा का साधन है। युक्त आहार-विहार ईश्वरोपासना का अंग है। आहार के विषय में मनुष्य को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। मानव के पास अन्य भौतिकवादी अभिलाषाओं की पूर्ति के कर्मचक्र के मध्य आहार या भोजन के लिए समय नहीं है, परंतु यह आहार ही जीवनोर्जा का आधार है( डा. सुरचना त्रिवेदी,दैनिक जागरण,21.2.11)

6 टिप्‍पणियां:

  1. खिन्न मन से बनाया गया तथा ग्रहण किया गया आहार शरीर को नकारात्मक ऊर्जा से भरता है.........
    शायद इसी लिए कहा भी गया है की "जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन ...".
    उपयोगी जानकारी हेतु आभार..........

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  2. राधारमण जी,

    आलेख सात्विकता प्रेरक है।

    कृपया अनुज्ञा दें यह आलेख मैं कॉपी करके 'निरामिष'पर पुनः प्रकाशित कर पाऊँ।

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  3. बिल्कुल सत्य व सारगर्भित...

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  4. आदरणीय सुज्ञ जी,
    मैंने स्वयं भी यह आलेख दैनिक जागरण से लिया है। अतः,आप बिना किसी पूर्वानुमति के उसके उपयोग को स्वतंत्र हैं। फिर भी,आपकी सादगी के लिए आभारी हूं।

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  5. आभार राधारमण जी,
    इस आलेख को ब्लॉग पर प्रकशित करने का आपने श्रम लिया है। हम पकी पकाई खाएं तो अनुज्ञा आवश्यक है।
    और अथक परिश्रम से आप स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारियां जनहित में प्रस्तुत करते रहते है। आपका सेवा कार्य अनुमोदनीय है।

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    'आहार' मात्र स्वाद प्राप्ति या जिह्वा का विलास मात्र नहीं,
    अपितु क्षुधा निवारण तथा शरीर रक्षा का साधन है।
    उपयुक्त आहार-विहार ईश्वरोपासना का अंग है।
    आहार के विषय में मनुष्य को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
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    शाकाहार के इस प्रचारक सन्देश को चिपकाने में मेरे भावों की गौंद भी निरामिष पर मिलेगी.
    राधारमण जी मैं भी निरामिष परिवार का सदस्य होने के नाते आपकी स्वीकृति के लिये आपको धन्यवाद देता हूँ.

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