गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

किस हाल में है देश का स्वास्थ्य ढांचा

अपने देश के लिए इससे बड़ी बिडंबना और क्या होगी कि दुनिया में सबसे ज्यादा डॉक्टर अपने ही देश से पढ़कर निकलते हैं। इसके बावजूद देश डॉक्टरों की भयंकर कमी से जूझ रहा है। आम चुनावों से ठीक पहले तब के स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदौस ने खुद स्वीकार किया था कि देश को अब भी कम से कम करीब सात लाख डॉक्टरों की जरूरत है। अंबुमणि रामदौस के मुताबिक इन दिनों देश में तकरीबन सात लाख प्रशिक्षित डॉक्टर या तो प्रैक्टिस कर रहे हैं या फिर सरकारी या गैर-सरकारी अस्पतालों में नौकरियां कर रहे हैं, लेकिन एक सौ बीस करोड़ की आबादी के लिए डॉक्टरों की यह संख्या ऊंट के मुंह में जीरे के समान नजर आ रही है। इसके साथ ही देश को करीब दो लाख डेंटिस्टों की कमी से भी जूझना पड़ रहा है। इन दिनों देश में तकरीबन 73 हजार डेंटल सर्जन रजिस्टर्ड हैं, जबकि जरूरत करीब तीन लाख की है। आर्थिक महाशक्ति की राह पर आगे बढ़ने का दावा कर रही मनमोहन सिंह की केंद्र सरकार के ही एक और सहयोगी मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अगुआई वाला योजना आयोग भी मानता है कि देश को अब भी करीब छह लाख डॉक्टरों की जरूरत है। डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा देश नर्सो और दूसरी तरह के प्रशिक्षित पैरामेडिकल कर्मचारियों की कमी का भी सामना कर रहा है। योजना आयोग के वर्ष 2007 के आंकड़े के मुताबिक देश में करीब ग्यारह लाख नर्से और करीब इतने ही पैरामेडिकल कर्मचारी काम कर रहे हैं, लेकिन अपनी भारी-भरकम जनसंख्या के लिहाज से यह संख्या भी बेहद कम है। योजना आयोग के मुताबिक देश के स्वास्थ्य को पटरी पर लाने के लिए तब करीब दस लाख नर्सो और इतने ही पैरामेडिकल स्टाफ की जरूरत थी। तब से गंगा-यमुना में काफी पानी बह चुका है। अपनी जनसंख्या भी थमी नहीं है। जाहिर है, मौजूदा समय में इस जरूरत में इजाफा ही हुआ होगा। मजे की बात यह है कि हर साल देश के फार्मा और नर्सिग कॉलेजों से करीब तीस हजार की संख्या में छात्र ट्रेनिंग लेकर निकलते हैं। इसके बावजूद इनकी कमी है कि जस की तस बनी हुई है। यहां यह भी ध्यान देना चाहिए कि विकसित देशों में जहां दस हजार की आबादी पर 33 नर्से हैं, वहीं भारत में यह संख्या महज आठ ही है। दरअसल, भारत की आबादी करीब 1.5 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है यानी हर साल करीब 1.5 करोड़ लोग आबादी का हिस्सा बन जाते हैं, लेकिन यहां डॉक्टरों की भारी कमी के साथ-साथ नए डॉक्टर बनने की रफ्तार बेहद कम है। जहां 1.5 करोड़ लोग बढ़ रहे हैं, वहीं हर साल सिर्फ 30 हजार छात्र ही एमबीबीएस की डिग्री लेकर कॉलेजों से निकल रहे हैं। अंबुमणि रामदौस के मुताबिक उनमें से ही करीब पांच फीसदी यानी पंद्रह सौ को विदेशी कमाई का मोह हमसे सात समंदर पार लेकर चला जाता है। इसी तरह हर साल करीब 12 हजार पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर एम्स जैसे तमाम संस्थानों से डॉक्टरी की ऊंची पढ़ाई करके निकलते हैं, जबकि जरूरत 30 हजार सालाना की है। उनमें से भी करीब पांच फीसदी विदेशी लोगों के इलाज के लिए हर साल उड़ जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक डॉक्टर और जनसंख्या के अनुपात के लिहाज से भारत की स्थिति अफ्रीका महाद्वीप के सहारा रीजन के तकरीबन बराबर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दस हजार लोगों पर जहां करीब 5.9 डॉक्टर हैं, वहीं ऑस्ट्रेलिया में यह संख्या 249, कनाडा में 209 और ब्रिटेन में 166 है। प्रति दस हजार जनसंख्या पर डॉक्टरों की सबसे ज्यादा संख्या अमेरिका में यानी करीब 548 है। अमेरिकी अनुपात को छोड़ भी दें तो अंदाजा लगाना आसान है कि भारत की हालत क्या है। यह तो हुई फिजिकल हेल्थ की बात। आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया को एक रोग का उपहार बड़ी तेजी से दिया है। यह उपहार है अवसाद यानी डिप्रेशन और तनाव। इसके चलते पूरी दुनिया में तेजी से मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। राजधानी दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल के मनोरोग विभाग के प्रमुख आरसी जिलोहा के मुताबिक इस समय अपने देश में तकरीबन दो करोड़ लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्त हैं। उनका इलाज करने वाले डॉक्टरों की संख्या महज साढ़े तीन हजार ही है, जबकि उनकी सेवा के लिए खासतौर पर प्रशिक्षित नर्सो की भी जरूरत होती है। हैरत की बात यह है कि मानसिक रोगियों के लिए खासतौर पर प्रशिक्षित नर्सो की संख्या महज डेढ़ हजार ही है। मानसिक बीमारियों का इलाज करने वाले डॉक्टरों की संख्या के लिहाज से भी भारत यूरोप और अमेरिका ही नहीं, कुछ एशियाई देशों के मुकाबले भी काफी पिछड़ा हुआ है। भारत में दस लाख आबादी पर जहां मानसिक रोगियों का इलाज करने वाले डॉक्टरों की संख्या महज 0.4 है, वहीं अपने पड़ोसी नन्हें से देश मालदीव में यह संख्या 3 है। श्रीलंका में यह संख्या 18 है। योजना आयोग के मुताबिक हर साल पढ़ाई पूरी करने वाले करीब पांच फीसदी डॉक्टर और नर्से विदेशी धरती का रुख कर लेते हैं। स्वास्थ्य मंत्री रहते खुद अंबुमणि रामदौस ने माना था कि भारतीय मूल के करीब साठ हजार डॉक्टर अकेले अंग्रेजी बोलने वाले चार देशों अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में ही काम कर रहे हैं। भारतीय मूल के एक डॉक्टर मोहम्मद हनीफ की ऑस्ट्रेलिया में गिरफ्तारी के बाद 2007 में बीबीसी ने एक सर्वे रिपोर्ट प्रसारित की थी। इसके मुताबिक पूरे ऑस्ट्रेलिया में भारतीय मूल के 2,143 डॉक्टर काम कर रहे थे, जबकि ब्रिटेन में उन दिनों भारतीय डॉक्टरों की संख्या 4,664 थी। इसके अलावा दक्षिण अफ्रीका, कैरेबियाई द्वीप समूह, दुबई समेत तमाम अरब देशों के अलावा भारतीय डॉक्टर मलेशिया और इंडोनेशिया में भी काम कर रहे हैं और वहां के लोगों को स्वास्थ्य लाभ दिला रहे हैं। इसी साल जारी योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2004 में अमेरिका और ब्रिटेन में काम कर रहे डॉक्टरों में 4.9 प्रतिशत भारतीय मूल के थे। ऑस्ट्रेलिया में यह संख्या 4 प्रतिशत थी, जबकि कनाडा में प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टरों में करीब 2.1 प्रतिशत भारतीय मूल के थे। इसी रिपोर्ट के मुताबिक दूसरे कई देशों को स्वास्थ्य सेवा संबंधी अन्य पेशेवर भी भारत से ही जा रहे हैं। जिनमें रेडियोलॉजिस्ट, लैबोरेटरी तकनीशियन, डेंटल हाइजीनिस्ट, फिजियोथेरेपी और मेडिकल पुनर्वासकर्मी प्रमुख हैं। देश में डॉक्टरों की कमी का यह हाल तब है, जबकि यहां की भारी संख्या स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझ रही है। भारतीय उद्योग जगत के प्रमुख संगठन फिक्की की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की करीब 16.5 फीसदी आबादी भारत में है, जबकि कुल बीमारियों का पांचवां हिस्सा भारत में ही पैर पसारे हुए है। जहां डॉक्टरों की कमी की यह हालत है, वहां अस्पतालों और बेड की संख्या और अनुपात पर भी नजर डाल लेनी चाहिए। भारत में एक हजार की जनसंख्या के लिए अस्पतालों में 1.5 बेड ही उपलब्ध हैं, जबकि चीन और कोरिया में यह आंकड़ा 4.3 बेड का है। ये आंकड़े चिकित्सा व्यवस्था की दुर्गति की ओर इशारा करते हैं। नेशनल कमिशन ऑन मैक्रो इकनॉमिक्स एंड हेल्थ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की हालत बांग्लादेश और श्रीलंका से भी खराब है। अब एक नजर देश के स्वास्थ्य पर डालना जरूरी है। अंतरराष्ट्रीय संस्था सेव द चिल्ड्रन के मुताबिक शिशु मृत्यु दर के मामले में भारत का स्थान पांचवां हैं। यहां हर साल चार लाख शिशु पैदा होने के 24 घंटे के भीतर ही काल के गाल में समा जाते हैं। इस संस्था के मुताबिक हर साल जन्म के 24 घंटे के भीतर ही 20 लाख शिशुओं की मौत हो जाती है, जिनमें से अकेले चार लाख की संख्या सिर्फ भारत से ही है यानी हर साल एक हजार नवजात बच्चों में से जन्म लेते ही 72 की मौत हो जाती है। इसी तरह सालाना शिशु मृत्यु दर भी एक हजार में 39 है। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, देवरिया, सिद्धार्थनगर और असम में हर साल सैकड़ों बच्चे मस्तिष्क ज्वर के ही चलते मर जाते हैं। इतना ही नहीं, सांस संबंधी रोग, तपेदिक, अतिसार, परजीवी बैक्टीरिया जनित बीमारियों के साथ-साथ प्रसव संबंधी समस्याओं से ग्रस्त लोगों की संख्या का एक तिहाई अकेले भारत में रहता है। इतना ही नहीं, देश की करीब 32 करोड़ महिलाएं प्रजनन संबंधी रोगों से ग्रस्त हैं। गांवों और दूर-दराज के इलाकों में रहने वाली 40 प्रतिशत महिलाओं को ल्युकोरिया, अल्सर और गर्भाशय कैंसर जैसी बीमारियों ने घेर रखा है। यह तो हुई उन आंकड़ों की बात, जिसे समय-समय पर भारत सरकार ही जारी करती है, लेकिन भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा गांवों में रहता है। यहां यह ध्यान दिया जाना जरूरी है कि डॉक्टरों और रोगियों की संख्या में ही काफी उलटबांसियां हैं। ग्रामीण इलाकों में जहां रोगियों की संख्या ज्यादा है, वहीं शहरी इलाकों में डॉक्टरों की संख्या ज्यादा है यानी गांवों को प्रशिक्षित डॉक्टरों की जरूरत कहीं ज्यादा है। आए दिन झोलाछाप डॉक्टरों का सवाल अपने यहां उठता रहता है, लेकिन गांव वाले आखिर क्या करें। उनके पास डॉक्टर ही नहीं हैं तो झोलाछाप डॉक्टरों से इलाज कराना मजबूरी है। जाहिर है जब तक पूरे परिप्रेक्ष्य में देश की स्वास्थ्य समस्या को देखा नहीं जाएगा। हालात में सुधार लाना आसान नहीं होगा। (उमेश चतुर्वेदी,दैनिक जागरण,4 फरवरी,2010)

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