विज्ञान बहिर्मुखी है, अध्यात्म अंतर्मुखी। पदार्थ को खंडित करते-करते विज्ञान
परमाणु बम तक पहुंच गया है। लेकिन अध्यात्म का ज़ोर जुड़ाव पर है। शरीर को
मन से, मन को हृदय से, हृदय को आत्मा से और आत्मा को अस्तित्व से जोड़ते-
जोड़ते वह पूरी सृष्टि को ही एक इकाई मानने पर ज़ोर देता है- वसुधैव कुटुंबकम!
मनुष्य भी कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है,बल्कि परस्पर-निर्भर है। सभी प्राणियों की
परस्पर निर्भरता के बावजूद मनुष्य की श्रेष्ठता इसलिए है कि उसने अपना जीवन
श्रेष्ठ कर्मों को समर्पित किया है।
कर्म का आधार है- शरीर। योग के उच्चतर अनुभव भी उन्हीं को हो पाते हैं,
जिनका शरीर स्वस्थ है। इसलिए, पतंजलि के अष्टांगयोग की शुरुआत भी शरीर को
दुरुस्त रखने से ही होती है। आसन-व्यायाम, प्राणायाम, ध्यान और समाधि ऐसी
विधियां हैं जिन्हें आज़माकर आप भी अपने जीवन को भरपूर जी सकते हैं। लेकिन
यह भी ध्यान रहे कि इनमें से कोई भी रास्ता किसी अन्य यौगिक उपाय का
विकल्प नहीं है। हर विधि की अपनी विशेषता है और उसके मूल लाभ उसी के
अभ्यास से मिलते हैं। एक नज़र, अष्टांगयोग की मुख्य विशेषताओं परः
अमूमन, लोग तमाम फायदे जानने के बावजूद, इनके अभ्यास से कतराते हैं।
इसकी मूल वज़ह है-शरीर का लचीला न रह जाना। जिन्होंने बचपन में कोई
योगाभ्यास नहीं किया है,वे सूक्ष्म यौगिक क्रियाओं तक ही सीमित रह जाते हैं।
इसलिए, बेहतर है कि हम अपने बच्चों में योग की आदत डालें। सर्वांगपुष्टि आसन
और पवनमुक्तासन समूह की क्रियाओं (पादांगुली, पादतल, पादपृष्ठ और गुल्फ
शक्तिवर्धक क्रिया से बच्चों के शरीर में नई ताज़गी आती है, आत्मविश्वास बढ़ता
है और उनकी मांसपेशियां मज़बूत होती हैं। युवा अगर रोज़ाना पांच राउंड सूर्य
नमस्कार कर सकें, तो इतना ही बहुत होगा उनके संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए।
महिलाओं के लिए पद्मासन, भुजंगासन, शशांकासन, चक्रासन,
शलभासन,विपरीतकरणी, उष्ट्रासन, मकरासन, पश्चिमोत्तानासन, गोमुखासन,
ताड़ासन, पादहस्तासन, त्रिकोणासन, मार्जरी आसन, सर्वांगासन और हस्तोत्तानासन
विशेष लाभकारी आसन हैं। इनसे वे मोटापा, कमरदर्द, कब्ज, गठिया, प्रदर,
हिस्टीरिया, अनिद्रा, निस्संतानता, वायुदोष, ल्यूकोरिया, सिरदर्द, गठिया और मधुमेह
तक से बच सकती हैं। निस्संतानता की स्थिति में वज्रासन, प्रजनन अँगों तथा
मासिक धर्म से जुड़े रोगों में चक्रासन, भुजंगासन, उष्ट्रासन और मार्जरी आसन,
और मंडूकासन तथा गर्भावस्था के शुरुआती दिनों में ताड़ासन अत्यन्त उपयोगी हैं।
पादहस्तासन और पद्मासन से महिलाओं के मुखमंडल की आभा बढ़ती है।
गोमुखासन और विपरीतकरणी से उऩके वक्षस्थल सुडौल होते हैं, त्रिकोणासन से
पेट के निचले हिस्से में जमा चर्बी कम होती है और कटिप्रदेश की सुंदरता बढ़ती है
तथा हस्तपादासन से बालों का झड़ना रुक जाता है। लम्बाई बढ़ाने में
पश्चिमोत्तानासन लाभकारी है।
ऐसे ही, बुजुर्गों के लिए हाई बीपी में सिद्धासन, पद्मासन, पवनमुक्तासन और
पश्चिमोत्तानासन बेहद फायदेमंद हैं। गठिया और वातरोग या जोड़ों के दर्द, कब्ज,
भूख न लगने में पवनमुक्तासन, पश्चिमोत्तानासन, शीर्षासन, गोमुखासन,
सर्वांगासन, पर्यंकासन, पद्मासन और वीरासन उपयोगी हैं। शवासन, उत्तानासन,
भस्त्रिका, योगनिद्रा, त्राटक आदि से कमज़ोर याद्दाश्त की समस्या दूर होगी। यदि
वे सूर्य नमस्कार, कूर्मासन और शशांकासन करें तो उन्हें अनिद्रा, निराशा, चिंता
और अटपटे विचारों से मुक्ति में मदद मिलेगी।
मुद्राएं दोनों हाथों की उँगलियों को एक विशेष प्रकार से मोड़कर बनाई जाती हैं।
रोज़ाना केवल 45 मिनट अभ्यास से ये अविश्वसनीय परिणाम देती हैं। अधिक
उपयोगी मुद्राओं की संख्या 80 है किंतु उनमें भी 8 मुद्राएं प्रमुख हैं। ज्ञान मुद्रा
प्रायः सभी रोगों में लाभदायी है। प्राण मुद्रा से रक्त संचार ठीक रहता है और
कोमा तक से रोगी को बाहर निकालने का दावा किया जाता है। अपान मुद्रा कब्ज
दूर करती है और पाचन-शक्ति बढ़ाती है। वायु मुद्रा से जोड़ों के दर्द, गैस आदि की
समस्या से निज़ात मिलती है। सूर्य मुद्रा से मोटापा कम होता है और मधुमेह
नियंत्रित रहता है। आकाश मुद्रा से कान की समस्या और शून्य मुद्रा से चंचलता
दूर होती है। व्यान मुद्रा से उच्चरक्तचाप कुछ ही मिनटों में समाप्त हो जाता है।
इन्द्र मुद्रा (अंगूठे और कनिष्ठा के ऊपरी हिस्से मिले हुए, बाक़ी उंगलियां सीधी) से
त्वचा का रुखापन समाप्त हो जाता है और चेहरे की कांति बढ़ती है। सिरदर्द में
महाशीर्ष और माइग्रेन में पानमुद्रा बहुत कारगर है। खेचरी मुद्रा (जीभ को तालु से
लगाना) साधना की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है।
बंध में शरीर के आंतरिक अंगों को सांसों से बांधा जाता है। इऩसे हमारी ऊर्जा
ऊपर की ओर प्रवाहित होने लगती है और कुंडली जागरण संभव होता है। बंध
लगाने की क्षमता जितनी मजबूत होगी, प्राणायाम के लाभ उतने अधिक होंगे। बंध
मुख्य रूप से पांच प्रकार के हैं-मूलबंध, उड्डियान बंध, जालंधर बंध, महाबंध और
जिह्वा बंध। ये सब इन्द्रियों पर विजय पाने और ऊर्जा के उच्चतर अनुभव में
प्राणायाम का अर्थ है-सांसों के नियंत्रण से स्वस्थ होने की कला। व्यायाम करने
वाले अगर प्राणायाम भी करें तो उनका लाभ कई गुना बढ़ जाता है। जिनके शरीर
लचीले नहीं रह गए हैं, वे भी व्यायाम के कई लाभ प्राणायाम से हासिल कर सकते
हैं। कुल चौरासी प्राणायाम हैं किंतु उनमें से 8 मुख्य हैं। कपालभाति और अनुलोम-
विलोम प्राणायाम अध्ययनरत और प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रहे लोगों
के लिए उपयोगी हैं क्योंकि इनसे स्मरण-शक्ति बढ़ती है। भस्त्रिका से भी स्मृति
तेज़ होती है। अनुलोम-विलोम करने से, देर तक कम्प्यूटर पर काम करने के
नुकसान नहीं होते। बाह्य प्राणायाम से तनाव दूर होता है। योगनिद्रा और
नाड़ीशोधन प्राणायाम से मन शांत और प्रसन्नचित्त रहता है। भ्रामरी से मंचों पर
प्रदर्शन आसान हो जाता है। उद्गीत प्राणायाम से मन तनावमुक्त रहता है। प्रणव
प्राणायाम से एकाग्रता बढ़ती है। उच्च रक्तचाप में योगनिद्रा, चन्द्रभेदी, सीतली,
शीत्कारी, उज्जायी प्राणायाम और योगनिद्रा की बड़ी उपयोगिता है। अनुलोम-
विलोम, भस्त्रिका, नाड़ीशोधन, योगनिद्रा और सूर्यभेदी प्राणायाम से स्मृति-लोप की
समस्या दूर होती है। नाड़ीशोधन से श्वसन-तंत्र मज़बूत रहता है, फेफड़ों को पर्याप्त
ऑक्सीजन मिलता रहता है और सिरदर्द दूर होता है। गर्भाशय/डिम्ब ग्रंथियों को
स्वस्थ रखने और अवसाद दूर करने में उड्डियान बंध बड़ा प्रभावकारी है।
प्राणायाम के लिए शरीर का स्थिर होना एकमात्र शर्त है। कोई भी प्राणायाम आंखें
बंद रखकर ही करें। प्राणायाम किसी भी समय किए जा सकते हैं किंतु सभी
प्राणायाम सबके लिए नहीं हैं। प्राणायाम अत्यन्त धीमी गति से किया जाना चाहिए
और इन्हें करते समय सांसों की आवाज़ बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। प्राणायामों के
भी साइड इफेक्ट्स हैं। हाई बीपी और दिमागी परेशानी वाले ऐसा कोई प्राणायाम
न करें जिनमें कुंभक लगाना पड़ता हो। सभी प्राणायाम सालोभर किए जाने योग्य
भी नहीं होते। कुछ प्राणायाम केवल ग्रीष्म ऋतु में करने चाहिए,जैसे-चन्द्रभेदी,
शीतली और शीतकारी प्राणायाम। ऐसे ही, भस्त्रिका और सूर्यभेदी प्राणायाम केवल
शीतकाल में किए जाने चाहिए।
भूख, मैथुन और नींद की प्रवृत्ति तो पशुओं में भी होती है। मानव जीवन इतने से
संतुष्ट होने के लिए नहीं है। योग पाशविक वृत्तियों से ऊपर ले जाने की विधा है।
योग का वास्तविक उद्देश्य व्यक्ति को रोगमुक्त करना नहीं,बल्कि रोगमुक्त होने
से रोकना और शरीर से इतर, आत्मस्थ करना है। वही असली स्वास्थ्य है।
स्वास्थ्य शब्द स्वस्थ शब्द से बना है। स्वस्थ यानी जो अपने में स्थित हो गया।
इसका एक ही उपाय है- ध्यान। यह आपके मन को विचारों की भीड़ से निकालकर
निर्विचार अवस्था में ले आता है। इसका नियमित अभ्यास आपको जागरुकता से
भर देगा। इसी जागरुकता की अगली छलांग है-समाधि। ध्यान में तो आपको अपने
होने का एहसास बना रहेगा लेकिन समाधि में वह एहसास भी खो जाएगा और
आप बोधमात्र रह जाएंगे। इसी बोध से भीतर का मैं-पन यानी अहंकार धीरे-धीरे
विदा हो जाता है और अहंकार विदा होते ही,आपका अंतस प्रेम से भर जाएगा।
अहंकार का विसर्जन और प्रेम का अभ्युदय ही योग का चरम है। फिर यम,नियम,
ईश्वर प्रणिधान, प्रत्याहार, धारणा आदि स्वतः पीछे छूट जाते हैं।