रविवार, 25 मार्च 2012

उफ!ये दर्द.....

हर किसी का दर्द समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। दर्द साझा कर लेना, दर्द बढ़कर दवा हो जाना या दर्द बढ़कर फुगाँ ना हो जाए जैसे जुमलों का साहित्यिक अर्थ भले ही हो लेकिन चिकित्सकीय परिभाषा में इन सब का कोई स्थान नहीं है। दुनिया में कभी भी, किसी भी मरीज़ का दर्द बढ़कर दवा नहीं हुआ। मरीज़ के दर्द की तीव्रता की थाह पाना किसी चिकित्सक के बस में नहीं है। हर इंसान के दर्द की व्याख्या दूसरे से भिन्ना होती है। देश की चिकित्सा व्यवस्था में दर्द से राहत दिलाने का कोई प्रावधान नहीं है, खासतौर पर कैंसर के मरीजों के लिए। कैंसर के मरीज़ जब बीमारी से संघर्ष के अंतिम दौर में पहुंचते तब तक कैंसर नाड़ियों तक उतर चुका होता है। हमारे यहाँ इस तरह के दर्द से मुक्ति का कोई उपाय नहीं किया जाता। दरअसल हमें बचपन से ही दर्द को सहने की सलाह दी जाती है। कई मरीज़ दर्द मुक्ति के उपायों के अभाव में जीवन भर दर्द सहते हैं। कैंसर ही की तरह कई दूसरी बीमारियों में भी असाध्य दर्द स्थाई तौर पर शरीर में बस जाता है। अफीम से बनी कई दवाओं में से एक मॉर्फीन को दर्द मुक्ति का सबसे असरदार विकल्प माना जाता है। विडंबना यह है कि मॉर्फीन से दर्द मुक्ति की सेवा देश के केवल कुछ अस्पतालों में ही उपलब्ध है। मॉर्फीन से दर्द निवारण की सेवाएं देने के लिए अस्पताल को खास तरह की इजाज़त लेना होती है। 

मुंबई में एक स्वयंसेवी संस्थान है "आवेदना" जो कैंसर की अंतिम स्थिति में पहुंच चुके मरीज़ों को दर्द से मुक्ति दिलाने के सभी विकल्प उपलब्ध कराते हैं। यहाँ मरीज को किसी तरह का इलाज मुहैया नहीं कराया जाता। केवल उनकी पीड़ा हरने का प्रयत्न किया जाता है। कैंसर की बीमारी में एक मुकाम ऐसा भी आता है जब मरीज़ को सर्जरी, कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी जैसे सभी इलाज करने के बाद भी आराम नहीं मिलता और बीमारी बढ़ती ही जाती है। लगातार इलाज के बाद भी सकारात्मक नतीजे नहीं मिलने पर मरीज के साथ परिजन भी निराश हो जाते हैं। आमतौर पर भारतीय समाज में मरीज़ को तीन पीढ़ियों तक का सहयोग मिल जाता है लेकिन सभी इतने खुशनसीब भी नहीं होते। कई मरीजों को उनके परिजन सड़कों पर मरने के लिए छोड़ जाते हैं। मुंबई के टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर कई ऐसे मरीज दिख जाते हैं। आवेदना ऐसे ही मरीज़ों की सेवा करती है। दुःखद है कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में दर्द मुक्ति का कोई प्रावधान नहीं है(संपादकीय,सेहत,नई दुनिया,मार्च द्वितीयांक 2012)।

5 टिप्‍पणियां:

  1. मरीज़ के दर्द से डॉक्टर व्यक्तिगत रूप से कभी प्रभावित नहीं होता । यदि ऐसा होने लगे तो इलाज संभव ही नहीं है ।
    लेकिन सरकारी अस्पतालों में भी दर्द निवारण के लिए पेन क्लिनिक हैं जहाँ अत्याधुनिक दवाओं से दर्द का इलाज किया जाता है ।
    कैंसर की अंतिम दशा में दर्द ख़त्म हो जाता है और बेहोशी छाने लगती है । अफ़सोस तब कोई कुछ नहीं कर सकता ।

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  2. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नै दिल्ली की पेन क्लिनिक बहुत अच्छा काम कर रही है यहाँ अपने कर्म को समर्पित एक वरिष्ठ मोहतरमा है .मैंने एक पब्लिक लेक्चर में उनका व्याख्यान सुना था विश्व -कैंसर दिवस पर .बहुत द्रवित हुआ था मैं उनके समर्पण भाव से जो अंतिम अवस्था में पहुंचे मरीजों का जन्म दिन भी मनातीं हैं उनका मरना आसान हो जाता है भले उन्हें ज़िंदा न रखा जा सके .

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  3. लाइलाज मरीजों के परिजन भी बहुत दुखी हो जाते हैं. कोई अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए ऐसे मरीजों के लिए.

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  4. कैंसर की अंतिम दशा का वर्णन उफ्फ, बेहद कठिन है उस मरीज देखना !
    अच्छी जानकारी आभार !

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  5. सच्चाई से रूबरू, अच्छी जानकारी आभार !

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